हम भी ऐसे ही भाग रहे हैं भ्रम की दुनिया में

एक बार एक बालिका परियों के लोक में पहुंच गई। परियों का लोक बहुत सुंदर था। कल्पना जैसा। सबकुछ अच्छा लग रहा था। सुंदर दिख रहा था। लेकिन पाया कुछ नहीं जा सकता था। बस दिख रहा था।
बालिका को दोपहर को भूख लगी और प्यास भी। उसने चाहा कि उसे कुछ खाने को मिल जाए।
तुरंत उसने सामने देखा कि कुछ दूरी पर परियों की रानी एक शानदार थाल में कई प्रकार के पकवान लिए खड़ी थी और बालिका को अपनी ओर बुला रही थी कि आ आ जाओ और इन्हें खा लो।
बालिका को भूख लगी थी वह तेजी से परियों की रानी की तरफ भागी ताकि वह शीघ्र से शीघ्र पकवानों का आनंद ले सके।
वह लगातार भागती रही। कुछ देर और फिर काफी देर तक। परियों की रानी और उसके बीच का दूरी उतनी ही रही। आखिर थक कर बालिका ने परियों की रानी से पूछा कि आखिर ये क्या मामला है?
मै कितनी देर से आपकी तरफ भाग रही हूं। दूरी कम ही नहीं हो रही।
परियों की रानी ने कहा कि और प्रयास करो!
बलिका फिर दौड़ने लगी। फिर से उसे कुछ हासिल नहीं हुआ। दूरी उतनी ही रही।
बालिका दुःखी हुई। फिर पूछा कि आपकी ये कैसी दुनिया है? बस चल रहे हैं और कहीं जा रही हीं रहे?
परियों की रानी ने कहा, बालिका! हमारी नहीं आपकी भी ऐसी ही दुनिया है! हम सब भी बस चल रहे हैं! लेकिन कहीं जा नहीं रहे हो। बस भाग रहे हो! मृगतृष्णा की तरह।
उस बालिका की तरह ही हम भी ऐसे ही भ्रम की दुनिया में बस भाग रहे हैं, लेकिन पा कुछ भी नहीं रहे।
(ओशो प्रवचन)

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