बनने लगे है अलग-अलग डिजाइन के मटके

फिर से बढ़ने लगी है ’मटकों’ की मांग

  • स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है मटके का पानी
  • अलग-अलग रंग रूपों में मिलने लगे हैं मटके
  • मिट्टी बर्तनों की भी बढ़ रही है मांग
  • 24सी न्यूज की संडे स्टोरी

मिट्टी सृजन है। मिट्टी मुक्ति हैं। किसी रंग में हो, रूप कोई हो। मिट्टी ही सत्य है। गर्मी आ गई हैं। सड़कों के किनांरें मिट्टी के मटकों की दुकानें सजने लगी हैं।

लगता है महामारी ने मानव को मिट्टी का महत्व अब और भी समझा दिया है। मटकों की मांग धीरे-धीरे फिर से बढ़ने लगी है। अच्छा ही है। स्वास्थ्य के लिए भी और गरीब कुंभकार लिए भी, जिसकी रोटी मिट्टी से ही चलती है।
24c न्यूज की आज की संडे स्टोरी इन्हीं मिट्टी के मटकों और कुंभकारों को समर्पित है।

ये हैं मिट्टी की झझरियां

मटका मानव के समाजिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक व सांस्कृतिक चिंतन से गहरे से जुड़ां हैं। मिट्टी संतो की वाणी में मुखर रही है। सोहनी-महीवाल की प्रेम कहानी का प्रतीक रही है। गीतों और कहानियों का विषय रही है। जितना मानव मिट्टी से दूर होता जा रहा है उतना ही बीमारियों के ज्यादा करीब आ रहा है।

एक वक्त था जब पानी मिट्टी के घड़ों में ही भरा जाता था। ना फ्रीज था ना धातु के बर्तन। मानव अब से ज्यादा स्वस्थ्य रहता था। अब फिर से मटकों का चलन बढ़ने लगा हैं। हालांकि अब कुंभकारों के घरों से मटके खरीदने की बजाय सड़कों से ही मटके अधिक खरीदे जाने लगे हैं। महामारी ने आम आदमी को मिट्टी के बर्तनों का महत्व समझाया है। केवल घड़े ही नहीं, मिट्टी के अन्य बर्तन कसोरे, कटोरी, तवे आदि भी अब उपलब्ध हैं।

सड़क किनारे लगी हैं मटकों की स्टाल

आदिम युग से मानव के साथ रिश्ता

मटके का मानव के साथ आदिम युग से ही रिश्ता है। जब से मिट्टी पकने लगी है। मटका भी बनने लगा है। पानी मानव की पहली जरुरत आज भी हैं। इस जरुरत को सहेजता है घड़ा। महम के पास गांव फरमाणा व सैमाण के बीच हड़प्पन काल की भट्टियां मिली थी। जहां उस समय का मानव मिट्टी के बर्तन पकाता था।

जन्म से मृत्यु तक चलता है साथ

घड़ा जन्म से अंत तक मानव के साथ चलता है। हर अनुष्ठान में घड़े में पानी भरकर रखा जाता है। जच्जा घर का काम तभी शुरु करती है जब वह पानी लाती है। हरियाणा में शादी के समय चाक पूजन की परपंरा घड़े का सम्मान देने का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। यहां तक अंतिम संस्कार भी मटकी फोड़कर ही पूरा किया जाता है।

नए-नए डिजाइन

मटका, मटकी, घड़ा, घड़िया, झज्जरी, झाकरा, झाकरी आदि कई रूप व नाम हैं। अब तो घड़ों पर टूटी भी लगाई जाने लगी। कैम्पर की आकृति के मटके भी बनाए जाने लगे। इसके अतिरिक्त और भी नए-नए आकार व नाम दिए जाने लगे हैं। साइज, डिजाइन तथा नक्काशी आदि के आधार पर इनकी कीमत तय होती है। आमतौर पर साधरण घड़ा बाजार में 80 रूपए में उपलब्ध हैं। विशेष बनावट के घड़ों की कीमत 200 रूपए या उससे भी ज्यादा है।

मटकों को लगने लगी हैं टूंटियां

स्वास्थ्य के लिए लाभदायक

मिट्टी के घड़ों का पानी स्वास्थ्य के लिए भी उपयोगी माना जाता है। घड़े के पानी से प्यास अच्छे से बुझती है। धड़े का पानी प्राकृतिक रूप शीतल रहता है। ऐसा माना जाता है कि पानी जब मिट्टी के संपर्क में आता है तो उसके हानिकारण बैक्टीरियां नष्ट हो जाते हैं। वैसे भी मिट्टी को पानी का श्रेष्ठ प्योरीफायर माना जाता है।

मटका खरीद रहे हैं ग्राहक

मिलती नहीं कीमत

बहुत से कुंभकार मटके बनाने का कारोबार छोड़ चुके हैं। शीशराम का कहना है कि जितनी मेहनत होती है उतनी कीमत नहीं मिल पाती। इसके अतिरिक्त अब मिट्टी का भी संकट है। मटकों की मिट्टी के लिए खदानें नहीं बची हैं। मिट्टी के बिना मटका कैसे बने। हालांकि उनका कहना है कि धीरे-धीरे मटकों का महत्व समझ आने लगा है। लेकिन अभी पूरी तरह समझने मे समय लगेगा। उनका कहना है कि सरकार को मटकों की मिट्टी की खदानो को बचाने के लिए कदम उठाने चाहिए। साथ ही कुंभकारों को संरक्षण भी देना चाहिए।

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One thought on “मानव फिर लौटने लगा है मिट्टी की ओर- ’मटका’ ’मिट्टी’ का-24c संडे स्टोरी”
  1. जड़ों से जोड़ता बहुत बढ़िया लेख । इंदु विजय को उज्ज्वल भविष्य की हार्दिक शुभकामनाएं

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