महम में अब नहीं सुनाई देती खड्डियों की खटखट (फाइल फोटो)

दो सौ से ज्यादा होती थी खड्डियां अब एक भी नहीं बची

खड्डियों के साथ ही बंद हो गया चरखे का चक्र

महम की गलियों से गुजरतें हुए आपकों कभी खट खट खट की मधुर आवाज अवश्य सुनी होगी। ये खट खट की लयबद्ध आवाज यहां चलने वाली खड्डियों की थी। जो अब इतिहास बनी गई हैं। महम की खड्डियां देश भर में प्रसिद्ध थी।
समय की जरुरत सही और गलत को नहीं देखती। सही हो या गलत बेहतर विकल्प मिल जाए तो आदमी पुराने को छोड़ देता है। नए की तरफ भाग लेता है। हालांकि उसके फायदे और नुकसान का बदलाव के समय अंदाजा नहीं हो पाता है। ऐसा ही हुआ है हथकघा उद्योग के साथ।
अकेले महम में कभी दो सौ से ज्यादा खड्डियां चलती थी। अब एक भी नहीं रही। हथकरघा उद्योग से जुड़ा चरखा चलाने का काम भी अब इतिहास बन चुका है। सन्डे स्पेशल में 24c न्यूज आपको आज महम के हथकरघा उद्योग के बारे में जानकारी दे रहा है।

अब ना ताना रहा है ना बाना (फाइल फोटो)


1960 से शुुरु हुई थी शुरुआत
महम में 1960 में खड्डियां लगाने की शुरुआत हुई थी। उससे पहले ताना व बाना दोनों का क्रास हाथ से ही होता था। ताना और बाना के क्रास होने पर ही बुनाई होती है। सूत भी देशी ही प्रयोग किया जाता है। धीरे-धीरे यहां खड्डियां बेहद लोकप्रिय हो गई। परमानंद ने बताया कि एक समय तो मांग इतनी बढ़ गई थी कि घरों में भी खड्यिां लगाई जाने लगी थी।

परमानंद


फैशन और तकनीक की भेंट चढ़ गया हथकरघा
परमानंद ने बताया कि हथकरघा फैशन और तकनीक की भेंट चढ़ गया। हथकरघा उद्योग से बने खेस और चौशी का स्थान मशीन से बने सामान ने ले लिया। हालांकि शुरुआत में केवल दस रुपए में खेस बेचते थे अब कीमत ढ़ाई सौ रुपए तक आ गई थी। चौसी कीमत दो रुपए मीटर से पचास रुपए मीटर से भी ज्यादा आ गई थी, लेकिन मांग बिल्कुल भी नहीं रही। यहीं कारण रहा कि खड्डिया बंद करनी पड़ी।

महम में रामलाल, परमानंद, माईराम व तुलसी की खड्डियां प्रसिद्ध रही हैं। इनमें से परमानंद ही सबसे पहले खड्डियां लगाने वालों और सबसे बाद में खड्डियों का काम छोडऩे वालों में से है।
ये है ताणा ये बाणा
खड्डी में रुल के ऊपर जो सूत के धागे लपेटे जाते हैं उसे ताणा कहते हैं। पहले सूत को मैद्दे की पाण लगाई जाती थी। उसके बाद चरखे से गोटे भरे जाते थे। गोटों को मशीन पर लगाकर हाथ से ही ताणा तैयार किया जाता था। अब तैयार ताणा ही आता है। पहले वाला ताणा अब वाले के मुकाबले ज्यादा मजबूत होता था। पाण लगी होने के कारण बुनाई के दौरान रुई नहीं उड़ती थी। जिससे कारीगर के स्वास्थ्य के लिए खतरा कम होता था। अब खतरा पहले से ज्यादा है। खड्डी चलती है तो रुल घुमता है। ताणा आगे ही ओर आता है। शैटल में डाली गई नली में जो सूत के धागे होते हैं। उन्हें बाणा कहते हैं। ताणा व बाणा आपस में क्रास होकर बुनाई करते हैं। इससे चौसी व खेस तैयार होते हैं।

अब नहीं रहे चौसी और देशी खेस (फाइल फोटो)


ढ़ाई से डेढ़ कि.ग्रा. के रह गए खेस
देसी सूत से जो खेस बनता था उसका वजन लगभग ढ़ाई किलोग्राम होता था। अब ताणा व बाणा दोनों ही मशीनी हो गए हैं। ऐसे खेस का वजन लगभग एक किलो ग्राम कम हो गया है। गुणवत्ता में भी कमी आई है।
महिलाओं को भी मिलता था काम
हथकरघा उद्योग गरीब परिवारों का पेट पालने का काम भी करता था। वृद्ध महिलाएं चरखे पर काम करती थी। परिवार के अन्य लोग भी समय मिलते ही यह काम कर सकते थे। यह कार्य करने के लिए घर से बाहर भी नहीं जाना पड़ता था।

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