बदल गया चोरों का जीवन

एक फ़कीर के घर रात चोर घुसे। घर में कुछ भी न था। सिर्फ एक कंबल था, जिसे वह ओढ़े लेटा था। .सर्द पूर्णिमा की रात थी। फ़कीर चोरों को देख रोने लगा कि चोर कुछ लेने आएं हैं, लेकिन उसके पास कुछ नहीं है। उसकी सिसकियां सुन कर चोरों ने पूछा कि भई क्यों रोते हो ?

फ़कीर ने कहा आप पहली बार तो आएं हैं, लेकिन मेरे पास देने को कुछ नहीं है। चोर फ़कीरों के यहां चोरी करने नहीं जाते, सम्राटों के यहां जाते हैं। .क्षण भर को मुझे भी लगा कि अपने घर भी चोर आ सकते हैं! ऐसा सौभाग्य! लेकिन फिर मेरी आंखें आंसुओ से भर गई हैं,
.अभी तो यह कंबल भर है मेरे पास, यह तुम ले जाओ। और देखो इनकार मत करना। इनकार करोगे तो मेरे हृदय को बड़ी चोट पहुंचेगी।

.चोरों ने ऐसी चोरी पहली बार की थी। चोर घबरा गए। लेकिन इंकार भी ना कर सके। कंबल ले लिया।
पर ये क्या ? फ़कीर के पास तो बस कंबल ही था। वहीं वस्त्र, वहीं ओढ़ना और वही बिछाना। कंबल लेते ही नग्न हो गया फ़कीर।

लेकिन फ़कीर ने कहा. तुम मेरी फिकर मत करो, मुझे नंगे रहने की आदत है।.तुम चुपचाप ले जाओ और दुबारा जब आओ मुझे खबर कर देना।

.फिर फ़कीर बोला कि सुनो, कम से कम दरवाजा बंद करो और मुझे धन्यवाद दो.आदमी अजीब है, चोरों ने सोचा। उन्होंने उसे धन्यवाद दिया, दरवाजा बंद किया और भागे।.

फिर चोर पकड़े गए। अदालत में मुकदमा चला, वह कंबल भी पकड़ा गया।.और वह कंबल तो जाना—माना कंबल था। वह उस प्रसिद्ध फ़कीर का कंबल था। .मजिस्ट्रेट तत्क्षण पहचान गया कि यह उस फ़कीर का कंबल है— .तो तुम उस गरीब फ़कीर के यहां से भी चोरी किए हो!.

फ़कीर को बुलाया गया। और मजिस्ट्रेट ने कहा कि अगर फ़कीर ने कह दिया कि यह कंबल मेरा है और तुमने चुराया है, .तो फिर हमें और किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है। उस आदमी का एक वक्तव्य, हजार आदमियों के वक्तव्यों से बड़ा है।.फिर जितनी सख्त सजा मैं तुम्हें दे सकता हूं दूंगा। फिर बाकी तुम्हारी चोरियां सिद्ध हों या न हों, मुझे फिकर नहीं है। उस एक आदमी ने अगर कह दिया…।

.चोर तो घबड़ा रहे थे, कंप रहे थे, पसीना—पसीना हुए जा रहे थे… फ़कीर अदालत में आया। .और फकीर ने आकर मजिस्ट्रेट से कहा कि नहीं, ये लोग चोर नहीं हैं, ये बड़े भले लोग हैं। .मैंने कंबल भेंट किया था और इन्होंने मुझे धन्यवाद दिया था। और जब धन्यवाद दे दिया, बात खत्म हो गई। .मैंने कंबल दिया, इन्होंने धन्यवाद दिया। इतना ही नहीं, ये इतने भले लोग हैं कि जब बाहर निकले तो दरवाजा भी बंद कर गए थे।

मजिस्ट्रेट ने तो चोरों को छोड़ दिया।

फ़कीर के पैरों पर गिर पड़े चोर और उन्होंने कहा हमें दीक्षित करो। वे संन्यस्त हुए। और फ़कीर बाद में खूब हंसा।.और उसने कहा कि तुम संन्यास में प्रवेश कर सको इसलिए तो कंबल भेंट दिया था।.इसे तुम पचा थोड़े ही सकते थे। इस कंबल में मेरी सारी प्रार्थनाएं बुनी थीं। यह कंबल नहीं था।.

जैसे कबीर कहते हैं झीनी—झीनी बीनी रे चदरिया! ऐसे उस फकीर ने कहा प्रार्थनाओं से बुना था इसे! इसी को ओढ़कर ध्यान किया था। इसमें मेरी समाधि का रंग था, गंध थी।.तुम इससे बच नहीं सकते थे। यह मुझे पक्का भरोसा था, कंबल ले आएगा तुमको भी। और तुम आखिर आ गए।.उस दिन रात आए थे, आज दिन आए। उस दिन चोर की तरह आए थे, आज शिष्य की तरह आए। मुझे भरोसा था।.(प्रवचन)

साभार पारुल सोनी, शोधार्थी कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र

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