मंदेरणा की वीर गाथा गा रहा मिरासी

गांव को बचाने के सम्मान में खूबा मंदेरणा को मिले थे तालाब और मिरासी तभी से मंदेरणा की गाथा गा रहा है मिरासी

  • मंदेरणा परिवार भी हर वर्ष निभाता है अपना वादा, मिरासी को देता है दक्षिणा और भोजन
  • 24c न्यूज खास स्टोरी

सुबह के चार बजे, गांव के शांत वातावरण को चीरता एक स्वर गूंजता है। अचानक कुत्तों के भौंकने की आवाज में गांव और कुल की गाथा जारी रहती है। इसके बाद गाथा गाने वाले को अपने घर ससम्मान ले जाने की होड़ लगती है़। आखिर किसी एक के घर जाता है यह गाथा गाने वाला मिरासी। दीपावली की जल्दी सुबह यह गाथा गाई जाती है गांव फरमाणा के मंदेरणा की। गांव का मिरासी इस गाथा को गाता है। गांव फरमाणा में यह परंपरा लगभग सात सौ साल से हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी इस परंपरा को निभाया जाता रहा है। मिरासी इस गाथा में खूबा मंदेरणा की उस वीरगाथा को चित्रित करता है, जिसमें खूबा ने गांव में चढ़ कर आए दूसरे गावों के लोगों को मार भगाया था। मिरासी इस गाथा में कुछ गांवों तथा लोगों के नाम भी लेता है।

परपंरा में बताया वरिष्ठ ग्रामीणों ने

पंवार राजपूत ने बसाया था फरमाणा

गांव फरमाणा लगभग एक हजार साल पहले आबाद हुआ माना जाता है। गांव के इतिहास पर कार्य करने वाले चंद्रभान साहरण के एक हस्तलिखित लेख के अनुसार इस गांव को सन् 1143 ई. के आसपास फरमाणा नामक पंवार राजपूत ने बसाया था। इस राजपूत के साथ कुल मिरासी भी आया थां। यह मिरासी राजपूतों की वीरता की गाथा गाता और मनोरंजन करता। दीपावली के दिन गांव के दक्षिण में बने कुरड पऱ चढ़कर यह मिरासी राजपूतों की कुल गाथा गाता था। राजपूत उसे इस कुरड़ से कंधे पर उठाकर घर तक ले जाते, वहां उसे दान-दक्षिणा देते और उसे भोजन कराते।  

मिरासी ऐसे मिला मंदेरणा को

कुछ समय के बाद बलिया मंदेरणा पुत्र जूणा राजस्थान के धारसूल गांव से राजपूत फरमाणा में अपने परिवार सहित आकर बस गया। गांव के मुखिया ने मंदेरणा के परिवार की गांव में सम्मान से रहने की व्यवस्था कीं। यह समय भारत पर अल्ला-उ-द्दिन खिलजी के शासन काल के समय का माना जा रहा है।

उस समय काफी अराजकता थी। आपस में गांवों के समूहों में लड़ाइयां होती रहती थी। मंदेरणा परिवार में बुजुर्ग रणधीर सिंह मंदेरणा तथा प्रकाश मंदेरणा ने बताया कि एक दिन गांव का राजपूत मुखिया किसी काम से बाहर गया हुआ था। पीछे से पड़ोस के गांवों के एक समूह ने फरमाणा गांव पर चढ़ाई कर दी। गांव में रह रहे मंदेरणा ने बलिया मंदेरणा के पौत्र खूबा ने ग्रामवासियों के सहयोग से चढ़ाई करने वालों को मार भगा दिया था। राजपूत जब वापिस आया तो उसे मंदेरणा की सूझबूझ और वीरगाथा के बारे में जानकारी मिली। उसने खूबा मंदेरणा से कहा कि वह जो मांगना चाहता हैं मांग ले।

तब मंदेरणा ने राजपूत से गांव का एक तालाब और वह मिरासी मांग लिया था जो राजपूत की गाथा गाता था। राजपूत ने अपना वचन निभाया और तालाब और मिरासी मंदेरणा को दे दिए। तब से मिरासी मंदेरणा की ही वीरगाथा गा रहा है। हालांकि उस समय राजपूत ने मंदेरणा से कहा था कि भाई आपने मुझसे कुछ लिया भी नहीं और मेरे पास कुछ छोड़ा भी नहीं।

दोनों ही निभाते हैं फर्ज

राजपूत ने मिरासी को मंदेरणा को सौंपते हुए कहा कि आगे से गांव के कुरड पर चढ़कर राजपूत की नहीं, मंदेरणा की वीर गाथा गाएगा। मंदेरणा से कहा कि वह सम्मान मिरासी को कुरड़ से लाएगा। उसे दान दक्षिणा और भोजन देगा। अगर मंदेरणा अपना फर्ज नहीं निभाएंगे तो उनकी हानि होगी। अगर मिरासी अपना फर्ज नहीं निभाएंगे तो उनकी हानि होगी। तब से आज तक दोनों पक्ष पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस परंपरा को निभाते आ रहे हैं। हालांकि कुछ समय के बाद राजपूत इस गांव से चले गए, लेकिन परंपरा आज भी जीवित है।

परंपरा निभाने के लिए गांव में आ बसा मिरासी

चंद्रभान के लेख के अनुसार पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हुए गांव में कोई मिरासी नहीं रहा। नानक मिरासी गांव का आखिरी मिरासी था। नानक की मृत्यु के बाद नानक का भान्जा चंदगी गांव सिवाड़ा से इस परपंरा को निभाने के लिए हर दीपावली पर गांव फरमाणा में आता था। चंदगी की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मांगेराम इस परंपरा को निभाने के लिए गांव में ही आ बसा।

ऐसे मिलता है मिरासी को न्यौता

अब गांव में कुरड़ तो नहीं रहा है। यहां बस्तियां बस गई हैं। मिरासी एक निश्चित स्थान पर आकर गाथा शुरु करता है। जिस भी ग्रामीण के घर कोई खुशी होती है या कोई मन्नत आदि पुरी हो चुकी होती है वह मिरासी के पास जाता है और उसे अपने घर आने का न्यौता देता है। मिरासी इस न्यौते को स्वीकार करता है और उसके घर भोजन के लिए जाता है।

लगती है न्यौता देने की होड़

मिरासी की आवाज सुनते ही मिरासी को न्यौता देने के इच्छुक मंदेरणा परिवार मिरासी के पास आ जाते हैं। उसे अपने घर आने की प्रार्थना करते हैं। जिस ग्रामीण ने उसे सबसे पहले न्यौता दिया होता है, मिरासी उसके घर भोजन व दक्षिणा के लिए चला जाता है। मिरासी को न्यौता देने के लिए ग्रामीण रात भर जागते हैं।

इस बार मिरासी ने महासिंह मंदेरणा परिवार का न्यौता स्वीकार किया। इस न्यौते को मिरासी का कुरड़ से उतारना कहा जाता है। दिवाली के दिन इस मिरासी को भोजन करवाना ग्रामीण शुभ मानते हैं।

मिरासी को अपने घर ले जाने की लगती है होड़

ये कहना है ग्रामीणों का

ग्रामीण गांव की इस परंपरा को गांव का गौरव मानते हैं। समाजसेवी महाबीर साहरण ने कहा कि उनका गांव आज भी अपनी प्राचीन परंपराओं को ज़िंदा रखे हुए है। वर्तमान पीढ़ी की ये जिम्मेदारी बनती है कि वो आने वाली पीढ़ियों को भी इस परंपरा से अवगत कराएं। ग्रामीण गांव में खेल, शिक्षा तथा नैतिक मूल्यों की स्थापना के साथ-साथ सांस्कृतिक व प्राचीन परंपराओं को भी स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं।

सौजन्य से

24c न्यूज/ इंदु दहिया 8053257789

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3 thoughts on “चौबीसी के एक गांव में आज भी जीवित है आठ सौ साल पुरानी परंपरा? वायदे को निभा रहे हैं ’मिरासी’ और ’मंदेरणा’! दीवाली के दिन गाई जाती है कुल गाथा? एक ही परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी गा रहा है ये गाथा? किसी भी मीडिया में पहली बार पढ़िए, रोमांचित करने वाली ये स्टोरी”
  1. अद्धभुत स्टोरी तैयार की है आपने दहिया साहब…..

    बहुत ही शानदार…….आपकी कला का कोई जवाब ही नहीं है

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