लक्ष्मी घर घर जाकर देती है मिट्टी के दीपक

आज भी कायम है घर-घर दीपक देने जाने की परंपरा

कुछ बदला है, लेकिन सबकुछ नहीं। कुछ मिटा है, लेकिन कुछ बचा भी हैं। मिट्टी को कौन मिटा सकता है, मिट्टी ही है जो बनाती भी है और मिटाती भी है।

“मेरी टोकरी के पास जब खाली परांत या कोई बर्तन सजता है और फिर मैं उसमें रखती हूं मिट्टी के दीपक, करवे और अहोई। यह क्षण मेरे लिए अद्भूत होता है। पूरे साल इन पलों का इंतजार करती हूं। कार्तिक के महीनें में ये पल आते हैं। अच्छा लगता है जब मां लक्ष्मी के आगे जगाने के लिए मैं दीपक बांटती हूं।”
जी हां, कुछ ऐसा कहना और सोचना था लगभग 75 वर्षीय फरमाणा की लक्ष्मी देवी का। जो पिछले लगभग पचास सालों से भी अधिक से इस गांव के कुछ निर्धारित घरों में कार्तिक के महीनें में मिट्टी के दीपक, करवे और अहोई बांटती हैं।
बदले में आज भी पहले की तरह लेती हैं कुछ अनाज। अब कुछ लोग पैसे भी दे देते हैं। कोई मोल भाव नहीं, बस जो मिल जाता ले लिया। लेकिन बेशक हाथ कांपने लगे हैं, पैर थकने लगे हैं, लेकिन गर्दन उस टोकरी का बोझ उठा लेती है, जिसमें दीए रखे होतें हैं, लक्ष्मी देवी इन्हें आज भी चुगड़े ही कहती है।
अब कम लेते हैं
लक्ष्मी का कहना है कि पहले ज्यादा दीपक लिए जाते थे। अब कम लेते हैं। घर के बड़े तो चाहते हैं मिट्टी के दीपक लिए जाएं, लेकिन बच्चे ज्यादा पसंद नहीं करते। करवे भी आजकल खांड के ज्यादा ले आते हैं।

गांव गली घूम कर दीपक बांटती है संतरो देवी (फोटो- सोहन फरमाणा)


इस बार मंदा ही रहा-संतरो देवी
लगभग साठ वर्षीय संतरो देवी दूसरे गांव में भी टोकरी से मिट्टी के दीपक और अहोई करवे देती है। बदले में भी उसे भी बस अनाज या कुछ पैसे मिल जाते हैं। संतरो देवी का कहना है कि वैसे तो साल दर साल मिट्टी के दिए बिकने में गिरावट ही आ रही है। इस बार कुछ ज्यादा रही। इसके बावजूद उसका कहना है कि ये परपंरा खत्म नहीं होगी। दीपावली का त्यौहार हमारा प्रमुख त्यौहार है। लोग वापिस मिट्टी के दीपक लेना पसंद करने लगेंगे।


खैर,सच यही है, कुछ बदला है, लेकिन सबकुछ नहीं। कुछ मिटा है, लेकिन कुछ बचा भी हैं। मिट्टी को कौन मिटा सकता है, मिट्टी ही है जो बनाती भी है और मिटाती भी है।

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