शहीद शुभाराम फाइल फोटो

1971 के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए थे फरमाणा के शुभाराम

शहादत के छह महीनें बाद जन्म हुआ था पुत्री का
इंदु दहिया

’शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर वर्ष मिले’ जगदम्बा प्रसाद मिश्र ’हितैषी’ की लिखी कविता की ये लाइनें शायद शहीदों के सम्मान में सबसे अधिक बार बोली, गाई या पढ़ी जाने वाली लाइनें हैं। लेकिन मेेले ज्ञात शहीदों के सम्मान में ही लग पाते हैं। अज्ञात शहीदों का तो भाषणों में भी जिक्र नहीं हो पाता। हो भी कैसे? वो अज्ञात हैं?
लेकिन शहीद अज्ञात क्यूं रहें? इसके लिए जिम्मेदार कौन हैं? यह एक विचारणीय विषय है। 24c न्यूज आज एक ऐसे शहीद से आपको रू-ब-रू करवा रहा जो पिछले लगभग 51 साल से लगभग अज्ञात था।
गांव में चर्चा तो होती थी। कभी-कभी उनकी शहादत को सम्मान देने के प्रयास भी किए गए, लेकिन पहचान कभी नहीं मिल पाई। वह भी तब, जब इस महान शहीद की पत्नी भी गांव मंे ही गुमनामी में चुपचाप अपना जीवन व्यतीत कर कर थी।
ये शहीद थे गांव फरमाणा का ’शुभाराम सहारण’। शुभाराम 10 दिसंबर 1971 को कच्छ क्षेत्र में भारत पाक युद्ध में शहीद हुए थे।
कौन थे शुभाराम?
शुभाराम गांव फरमाणा के टेकराम के छोटे बेटे थे। उनके बड़े भाई का नाम धूप सिंह था। जो शुभाराम से लगभग छह साल बड़ा था। जबकि उनसे तीन साल बड़ी एक बहन हुकमा देवी भी थी। शुभाराम का जन्म 29 जनवरी 1951 को हुआ था। उनकी माता का नाम भगवानी देवी था। जवान बेटे की शाहदत्त के बाद भगवानी देवी का मानसिक संतुलन ज्यादा ठीक नहीं रहा था। वो उम्र भर बेटे के लिए बेचैन रही, क्योंकि वो अपने बेटे के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाई थी। शुभाराम का शव भी नहीं आया था। शुभाराम केवल चार साल का थी, तभी उनके पिता की मौत हो गई थी।

शहीद शुभाराम का शहीद सम्मान पत्र

शहादत से डेड़ साल पहले हुए थे भर्ती
शुभाराम शहादत से लगभग डेढ़ साल पहले जाट रेजिमंेट में भर्ती हुए थे। सिरसा में उनका चचेरा भाई पटवारी था। वो उसके पास गए हुए थे। वहां भर्ती चल रही थी। भर्ती में गए और फौज के लिए चुन लिए गए।

शहीद शुभाराम की पत्नी सत्तो देवी (फाइल फोटो)

शहादत के छह बाद हुआ था बेटी का जन्म
शहीद शुभाराम की शादी सत्तो देवी के साथ हुई थी। शादी के कुछ दिन बाद ही शुभाराम शहीद हो गए। शुभाराम की शाहदत्त के समय उनकी पत्नी मात्र तीन माह की गर्भवती थी। उन्होंने बाद में बेटी को जन्म दिया और पूरी उम्र उस बेटी और अपनी शहीद पति की याद में गांव फरमाणा में ही रहकर बीता दी। लगभग छह महीनें पहले ही उनका निधन हो गया।
बेटी ने बरेली से निकलवाया फोटो
शहीद शुभाराम का कोई फोटो भी नहीं था। उनकी बेटी सुशीला को तो ये भी नहीं पता था कि उनके पिता का चेहरा कैसा था। सुशीला की शादी जिला सोनीपत के गांव बजाणा में हो गई। उसके बच्चे भी बड़े हो गए। फिर एक प्रयास आरंभ हुआ। काफी प्रयासों के बाद पता चला कि शुभाराम का फोटो बरेली में मिल सकता है। शुभाराम की पत्नी व बेटी उस फोटो के लिए बरेली गए। वहां काफी प्रयासों के बाद उन्हें उनके पिता की फाइल से उनके पिता की फोटो की मोबाइल से फोटो लेने दी गईा। सुशीला ने बताया कि तभी पहली बार उन्होंने अपने पिता के चेहेरे को देखा था।
प्रयास तो हुए
शहीद शुभाराम के भतीजे सुनील कुमार ने बताया कि उनका परिवार ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है। इसके बावजूद उन्होंने कई बार राजनेताओं व सरपंचों आदि से उनके चाचा की शाहदत्त की याद में कुछ करने के लिए कहा। कुछ सरपंचों ने प्रयास भी किए। एक बार उनकी प्रतिमा लगाने की बात भी हुई थी, लेकिन तब फोटो नहीं मिला था। कोई प्रयास सार्थक नहीं हो पाया।

शहीद शुभाराम की बेटी को गांव में किया गया सम्मानित

26 जनवरी को किया गया सम्मानित
इस वर्ष 26 जनवरी को शहीद की बेटी तथा उनके परिवार के सदस्यों को गांव में सम्मानित किया गया। इस सम्मान समारोह का आयोजन समाजसेवी महाबीर सहारण ने किया था। महाबीर सहारण ने कहा है कि शहीद शुभाराम की याद को पुनजीर्वित किया जाएगा। उनके नाम पर स्कूल का नाम रखवाया जाएगा। इसके अतिरिक्त उनके नाम पर पुरस्कार भी स्थापित करवाएं जाएंगे। महाबीर का कहना है कि वे प्रयास करेंगे कि गांव की नौजवान पीढ़ी अपने गांव के महान शहीद के बारे में सही से जान पाए। इस कार्यक्रम का संचालन कर रहे शहीद सेवा दल के प्रदेशाध्य़क्ष सावन सिंह ने भी कहा कि उनका दल भी शहीद की शहादत्त के सम्मान में कार्यक्रमों का आयोजन करेंगे। प्रदेश स्तर पर शहीदों के सम्मान में चलने वाले उनके कार्यक्रमों में शहीद शुभाराम को भी शामिल किया जाएगा। शहीद शुभाराम सेना के शहीदों की आधिकारिक सूचि में भी शामिल हैं।
गांव में नहीं थी पूरी जानकारी
शहीद शुभाराम के बारे में गांव में पूरी जानकारी नहीं थी। लंबे समय तक तो ये माना जाता रहा कि शुभाराम पाकिस्तान की कैद में हैं, क्योंकि उनका शव नहीं आया था। हालांकि उनकी बेटी का कहना है कि उनकी शहादत का तार उसी समय आ गया था। इसके बाद भी गांव में काफी समय के बाद स्वीकार किया गया कि वे शहीद हो चुके हैं।

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