स्वामी रामदेव भी जिनके छूते थे चरण
- कभी उनकी बांसुरी की धुन पर नाचता था गांव फरमाणा
- बाद में पूरी दुनिया को पढ़ाया योग दर्शन
- भगवान बुद्ध की तरह अचानक हुआ हृदय परिवर्तन और बन गए संन्यासी
- 24c न्यूज की खास रिपोर्ट
जब ज्ञान का द्वारा खुलता है तो मजहब की सीमाएं टूट जाती हैं। मुंशीखान ‘मुनीदेव’ बन जाता है और साधारण मानव ‘सत्यपति’ हो जाता है। गांव फरमाणा में दोस्तों के साथ बांसुरी बजाने वाला एक बालक दुनिया के लिए योगदर्शन का प्रकांड विद्वान हो जाता है। ना घर के हालात आड़े आते हैं और ना मजहब की सीमाएं।
जी हां, आज 24c न्यूज विरान से विराट की ओर निकले एक महामानव की ऐसी गाथा लेकर आया है, जिसे लिखकर हम धन्य हुए हैं और पढ़कर आप रोमांचित होंगे।
गत गुरुवार को वानप्रस्थ साधक आश्रम रोजड़ गुजरात के संस्थापक तथा योगदर्शन के प्रकांड विद्वान स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक अनंत की ओर चले गए। पूरी दुनिया के आर्यसमाज तथा योगदर्शन के जानकारों तथा भारतीय सिंद्धातों के लिए यह एक अपूर्णीय क्षति थी।
मोलड़ खान के घर जन्में थे मुंशीखान
चौबीसी के शायद कम ही लोग जानते हैं कि ये विद्वान महम के फरमाणा गांव में सन् 1927 में मोलड़ खान के घर जन्मा था। इनकी मां का नाम बांखा देवी था। पिता कपड़े धोने का काम करते थे। बेहद गरीबी के चलते मुंशीखान बचपन के कुछ साल अपने मामा के घर टिटौली में भी रहे।

बांसुरी बजाता था
मुंशीखान के पड़ोसी तथा उनके साथ बीस साल तक रहे 90 वर्षीय मांगेराम आर्य ने बताया कि मुंशीखान को बचपन से ही बांसुरी बजाने का शौक था। आर्यसमाज के कार्यक्रमों में वह बांसुरी बजाता था। मांगेराम आर्य हारमोनियम बजाते थे। हालांकि मन से तब तक वह मुस्लिम ही था।

ऐसे हुआ हृदय परिवर्तन
मांगेराम आर्य ने बताया कि बटवारे के दिनों में महम में तो शांति थी, लेकिन जींद के आसपास के इलाके में हिंसा हुई थी। वे रामराह पिंडारा से आ रहे थे। रास्ते में उन्होंने बंटवारे के दौरान लड़ाई में गंभीर रूप से घायल को देखा था। उसे खाट में डाल कर ले जाया जा रहा था। बस तभी से उसका मन उदास हो गया और वह वैराग्य की ओर चले गया।
मुंशीखान से बने स्वामी मुनीदेव
लगभग 22 साल की उम्र में उसने घर में छोड़ दिया। पहले दयानंद मठ गए फिर झज्जर गुरुकुल चले गए। मुस्लिम धर्म की मान्यताओं को छोड़कर आर्यसमाज के सिद्धांतों को धारण कर लिया। अमेरिका में सांस्कृतिक काऊंसलर तथा उनके सानिद्धय मे रहे डा. सोमबीर आर्य ने बताया कि झज्जर गुरुकुल में स्वामी ओमानंद सरस्वती जी ने उन्हें मुंशीखान से मुनीदेव नाम दिया। यहीं उन्होंने ठीक से पढ़ना लिखना सीखा और शीघ्र ही संस्कृत के प्रकांड विद्वान बन गए।

गुजरात में की आश्रम की स्थापना
स्वामी मुनीदेव अब आर्यसमाज और संस्कृत के प्रकांड विद्वान हो चुके थे। उनके द्वारा योगदर्शन पर लिखी किताबें दुनिया में चर्चित हो गई थी। योग व संस्कृत के साथ-साथ वे व्याकरण के उच्च कोटी के ज्ञाता थे। उन्होंने गुजरात में वानप्रस्थ सन्यासी आश्रम की स्थापना की और यहां वे स्वामी सत्यपति परिव्राजक कहलाने लगे। डा. सोमबीर ने बताया कि वे अपने जीवन काल में कभी किसी के साथ नहीं झगड़े। उनके शांत स्वभाव व विद्वता को दुनिया युगों-युगों तक याद रखेगी।
गांव के संपर्क में रहे
सत्यपति के भाई की पत्नी 80 वर्षीय बूंदी देवी ने बताया कि वे संन्यास लेने के बाद वे गांव में दो-तीन बार आए हैं। उनका परिवार भी उनके पास जाता रहा है। सत्यपति के दो भाई थे, उनसे छोटा मांगे राम तथा सबसे छोटा लीलू राम।

हटवा दिया था घूंघट
बूंदी देवी ने बताया कि सत्यपति रिश्ते में उनके जेठ लगते थे, इसलिए वे उनसे घूंघट करती थी। लेकिन उन्होंने घूंघट हटवा दिया था, कहा कि अब वे संन्यासी हैं। सत्यपति के परिवार से उनका भतीजा तथा पोत्र उनके अंतिम संस्कार के समय गुजरात भी गए।
आते रहते थे पत्र
मांगेराम आर्य ने बताया कि सत्यपति गांव से बहुत प्रेम करते थे। उनके द्वारा आर्यसमाज के आयोजनों के पत्र उनके पास आते रहते थे और वे उन आयोजनों में शामिल होने के लिए उनके पास जाते थे। गुजरात उनके आश्रम में भी वे गए हैं।
आज है श्रद्धांजलि सभा
स्वामी सत्यपति के सम्मान में गांव में आज श्रद्धाजंलि सभा रखी है। सत्यपति ने सत्य की जो राह दिखाई है उससे न केवल पूरी मानवता बल्कि महम चौबीसी क्षेत्र हमेशा धन्य होता रहेगा।
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