पाकिस्तान में हरियाणवीं संस्कृति के ब्रांडएम्बेसडर बंदा मीर ‘महमी’
- बटवारे के समय चले गए थे पाकिस्तान
- पाकिस्तान में एकजुट किया हरियाणावासियों को, बांध लिया ‘सांग’ का बेड़ा बेहद लोकप्रियता हासिल की
- जीवन के अंतिम काल तक नहीं भूले हरियाणा और अपनी परंपराओं को
- महम के अतिरिक्त निंदाना-फरमाना को भी बहुत याद करते थे बंदा मीर
इंदु दहिया
सरहदें बदल जाने से स्थान बदल सकता है। राष्ट्रीयता बदल सकती है, लेकिन संस्कार नहीं बदल पाते हैं। अपनी मातृभूमि की मिट्टी की खशबू की महक न तो कभी दिलों-दिमाग से निकलती है और न कभी उसकी सुगंध कम होती है। बल्कि सरहदें बदल जाए तो मातृभूमि की रज़ और अधिक याद आती है, और अधिक बेचैनी बढ़ाती है।
यही कारण है कि 1947 के भारत पाक विभाजन से जुड़ी घटनाएं, उस पर लिखा जाने वाला साहित्य, उस पर बनने वाली फिल्में व सीरियल व नाटक आज भी दिलों को छूतें हैं और भावनाओं का समंदर उमड़ता है।
1947 में हरियाणा पंजाब का ही भाग था और सही मायने में तो पंजाब ही बटा था।
उस समय के उभरते हरियाणवी लोककलाकार और महान सांगी धनपत मीर के अतिप्रिय शार्गिद बंदा अली मीर ‘महमी’ भी बटवारे में पाकिस्तान चले गए थे। हरियाणा संस्कृति के लिए गौरव की बात ये है कि बंदा मीर ने पाकिस्तान में भी हरियाणावीं संस्कृति को स्थापित किया। यहां से विस्थापित हो गए हरियाणवियों को एकमंच पर एकत्र किया। सहीं मायने में बंदे मीर को पाकिस्तान में हरियाणवीं संस्कृति का ब्रांड एम्बेसडर कहा जाए तो कोई अतिशियोक्ति नहीं है। हरियाणा में आज भी बंदामीर को चाहने व याद करने वालों की संख्या कम नहीं है।
महम में हुआ था जन्म
बंदा अली मीर ‘महमी’ का जन्म 1922 में जिला रोहतक के कस्बा महम में हुआ था। उनके पिता का नाम छोटूखान था। उन्होंने महम में ही मुंशीअलादात खान के मदरसे में माध्यमिक स्तर की पढ़ाई की। मदरसे में हर शनिवार को होने वाली बालसभा में वे नज़्में व रागनियां खूब गाते थे।
आज भी याद करते हैं बंदा और धनपत की जोड़ी को
बंदा मीर महमीं के मामा गाांव भाटोल निवासी हीरालाल उस समय के अच्छे सांगियों में माने जाते थे। शुुरुआत में वे उनके साथ रहे। लेकिन यहां उनके फ़न की प्यास नहीं बूझ पाई और महान सांगी धनपत निंदाने वाले के शार्गिद बन गए। बंदा और धनपत की जोड़ी को आज भी हरियाणा के सांग प्रेमी याद करते हैं। बंदे मीर की शादी गोहाना के पास आहुलाना गांव के बसाऊ राम की बेटी मजीदन के साथ हुई थी। बंदे मीर एक बेटा मोहम्मद इकबाल है। बेटी ममो इसी साल बीस जून को ओकाड़ा में देहांत हुआ है। बंदा का परिवार फिलहाल मुलतान में रहता है।
घर का नाम है ‘महमी’ हाऊस
बंदामीर ने जिला रोहतक के छोटे से कस्बे को पाकिस्तान में स्थापित कर दिया। उनका परिवार फिलहाल मुलतान में रहता है और उनके घर का नाम ‘महमी’ हाऊस है। घर के बच्चे भी अपने नाम के साथ ‘महमी’ ही लगाते हैं।
बेहद गरीबी बीते पाकिस्तान में शुरुआती दिन
बंदे मीर के बेटे मोहम्मद इकबाल ने बताया कि पाकिस्तान में उनके शुरुआती दिन बेहद परेशानी में बीते। वे शुरु में ओकाड़ा में आकर बसे। रोजगार को कोई साधन नहीं था। दादी और मां के जेवरों को बेच कर परिवार के पेट की आग बुझाई जाती थी। बाद में उनकी मां कहने पर बंदे मीर तथा उसके भाइयों ने ओकाड़ा स्टेशन पर दाल व रोटियां बेचना शुरु किया। इकबाल मोहम्मद बताते हैं वे दिन भर ओकाड़ा स्टेशन पर एक आने की रोटी व दाल फ्री की आवाज लगाते तब जाकर शाम को उनके परिवार को रोटी नसीब होती थी। हरियाणा की होने के कारण बंदे मीर के परिवार की औरतें हांडी में दाल बेहद स्वाद बनाती थी। ऐसे में स्टेशन पर उनके परिवार की दाल रोटियां अच्छी खासी बिकने लगी थी।
लगता था होगी वतन वापसी
इकबाल महमी ने बताया कि उनकेे परिवार को लगता था कि बंटवारे के समय में फैला गुबार जल्दी ही शांत हो जाएगा। भारत पाकिस्तान या तो एक हो फिर से एक हो जाएंगे या उन्हें फिर से दोनों अच्छे भाइयों की तरह रहने लगेंगे। और वे फिर से भारत ही वापिस चले जाएंगे। लेकिन 1965 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद जब तनाव बहुत अधिक बढ़ा तो लगने लगा कि अब उनकी कब्रें पाकिस्तान में ही बनेंगी। और उन्हें यहीं का ही हो के रहना है।
हरियाणवीं संस्कृति को किया जिंदा
हरियाणा से गए मुस्लमान पाकिस्तान में अलग-अलग स्थानों पर फैल गए थे। उन्होंने घूम-घूम कर सांग के चाहने वालों को एकजुट किया। साजिन्दे व सहयोगी कलाकार तैयार किए और आखिर अपना सांग बेड़ा बांध लिया। हरियाणावीं में लिखते और गाते रहे और हरियाणा की रागनी व सांग परंपरा को लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाया। उनकी पाकिस्तान में लिखी हरियाणवीं रागनी की झलक देखिए,
‘हाम हरियाणा के सभी एक हैं, कौम का कोए सवाल नहीं।
मां की बोली छूटती जा रही, कुछ भी तम नं ख्याल नहीं ।।’
इस रागनी में वे हरियाणा के प्रमुख गोत्रों का भी जिक्र करते हैं और यहां तक कहते हैं। उन्होंने पाकिस्तान जाकर भी हरियाणा के गांवों, देहातों का अपनी रागनियों में खूब जिक्र किया है। यहां रीतिरिवाजों और परंपराओं को खूब गाया व सराहा है। एक रागनी में तो वे यहां तक कहते हैं।
‘तुम शरम करो आपणी बोली त, फेर किस त समझाणा स
अर मां की बोली मत छोड़ो, यो रस्मों रिवाज पुराणा स’
बटवारे के दर्द को कुछ यूं व्यक्त करते हैं-
‘जिसा छिड्या हक बातिल का, इसा और दूजा छेड़ा के होगा।
जिसा होया सन सनतालीस मं, इसा खेड़ बखेड़ा के होगा’
एक रागनी में लिखते हैं-
‘जिसा माहौल छोड़ क आए, पाछली बात रही ना याद
मेरी तेरी चुगली निंदा, रोजाना नित नए फसाद’
हरियाणा की तरह ही पाकिस्तान में भी सांग परंपरा धीरे-धीरे कमजोर होने लगी थी। वे एक रागनी में लिखते हैं-
‘सांग करण का बख्त जा लिया, इब कोए रह्या सवाद नहीं
भूल गए सब रंग राग, हम क्या गाएं कुछ याद नहीं।’
इस पूरी रागनी में वे पुराने समय के तथा बाद के समय में सांगियों की तुलना करते हैं।
बंदे मीर ने अपनी रागनियों में लोककल्याण की भावना को भी खूब व्यक्त किया है-
एक रागनी में लिखते हैं
‘माड़े माणस होया करै सं, करतब माड़े करण आले
आजकाल के इसे चौधरी, खड़दू खाड़े करण आले’
एक रागनी की टेक है
‘ये संसार सरा, चिड़िया रैन बसेरा।
इक दिन पंछी उड़ ज्या गा, ना पटै वक्त का बेरा।’
पाकिस्तान जाने के बाद उनकी भाषा पर उर्दू का प्रभाव भी दिखाई देने लगा था। रागनियों के अतिरिक्त उन्होंने नज्में भी लिखी हैं। एक शानदार नज्म है-
‘रिज़क का राजि़क, खलकत का खालिक, माबूद तू ही है।
इस दुनिया का जड़, पेड़, मूल और नाव, नाबूद तू ही है।’
इसी नज्म में लिखते हैं-
‘आदिल, अदल, अदालत तूं है और पंच खूदामिल तूं है
अमल और मामूल तूं ही और खूद आमिल तूं है
मुल्ला, पंडित, कारी, आमिल, और कामिल तूं है
हर शैय में तूं अलग रहता, और हर शैय में शामिल तूं है
कह बंदे मीर हाथ पा सिर ना, बिना वजूद तूं ही है…’
बंदे मीर जीवन भर अपने गुरु धनपत निंदाना वाले के प्रति समर्पित रहे। धनपत के जीवन काल में पत्रों के माध्यम् से वे एक दूसरे बात भी करते थे। उन्होंने पाकिस्तान में धनपत द्वारा लिखे सांगों को किया। जिनमें बणदेबी को वहां भी बहुत अधिक सराहा गया। इसके अतिरिक्त उन्होंने भी कई सांगों की रचना की। जिनमें ‘अंजुमआर’ तथा ‘दीदार’ बहुत लोकप्रिय हुए। इस सांगों के चरित्रों के नाम भी हरियाणवीं नामों से ही मिलते जुलते थे। अपने जीवन काल के अंतिम दिनों वे हृदय रोग से पीड़ित हो गए थे। 14 जुलाई1988 को मुलतान स्थित अपने घर में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा। रागनियों को पाकिस्तान में रहने वाले हरियाणवीं आज भी बड़े चाव से सुनते हैं और उन्हें याद करते हैं।
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