वक्त की आंधी में उड़ गए रेजा, रंगाई और रंगरेज
हैरान रह जाएंगे एक रजाई की रंगाई की कीमत जानकर
महम के सब रंगरेज छोड़ चुके हैं सूती लिहाफों की रंगरेज गिरी
महम से लगभग चार किलोमीटर उत्तर में भैणीसुरजन के गांव के बस स्टैंड पर जब पूछा गया कि यहां कोई सूती रजाई रंगने वाला रंगरेज रहता है?, तो वहां बैठे ग्रामीणों ने बताया कि पूर्व से उत्तर की ओर जाकर ‘पालू’ का घर पूछ लेना। घर के सामने गए तो, इतना जर्जर मकान देख हैरान थे।
यह मकान था, महम तथा आसपास के गांवों के अकेले बचे रजाई रंगरेज सतपाल का। गांव में सतपाल को ‘पालू’ ही कहते हैं।
पालू के बात करने से भी पहले उसके घर की तस्वीरें लेने लगे तो पालू को लगा कि सरकारी योजना में उसका मकान बनना पास हो गया। पूछने लगा
‘मेरा घर बनेगा क्या?’
वक्त की मार ने रजाई रंगरेजों का पुश्तैनी काम छीन लिया। सब रंगरेज, रंगरेज गिरी छोड़ कर अन्य कामों में लग गए। सतपाल उर्फ पालू को अभी यह काम करना पड़ रहा है। वह कह रहा है कहीं से कोई लोन ही मिल जाए तो वह भी इस काम को छोड़ कर कुछ और कर लें। यह काम तो बस हुनर रह गया है। इसमें पैसा नहीं रहा।
कौन थे रंगरेज
थोड़ी पुरानी पीढ़ी के लोगों ने खुले मैदानों में चौसी से बने रजाइयों के लिहाफ सूखते खूब देखें होंगे। रंगरेजों के पूरे मौहल्ले होते थे और उनके यहां लिहाफ रंगवानें वालों की भीड़ भी लगती थी। पहले रजाइयां सूत के रेजे से बनी होती थी। रेजा खड्डियों में बनता था और इस रेजे से रजाइयों के लिहाफ बनते थे। जिनमें रुई डाल कर रचाइयां तैयार होती थी। सूत से बनी रजाइयों को रंगने वाले रंगरेज कहलाते थे।
महम में नहीं बचा कोई रंगरेज
महम में लगभग 15 साल पहले तक छह परिवार रजाइयों की रंगरेज गिरी करते थे। अब पिछले छह सालों से एक भी परिवार रंगरेज गिरी नहीं कर रहा। रंगरेज गिरी का पुश्तैनी काम करने वाली शीला देवी तथा उसके पुत्र प्रदीप ने बताया कि रंगरेज गिरी उनके लिए घाटे का सौदा हो गया था, इसलिए छोड़ दिया। अब रेजे के लिहाफों को कम लोग लेते हैं। मिलों में बने कपड़े से बने मिलों में ही तैयार हुए लिहाफ आ गए हैं। ऐसे में सूती रेजे के लिहाफों की मांग नहीं रही। यही कारण है रंगरेजों को अपना पुश्तैनी काम छोड़ना पड़ा। प्रदीप अब रंगरेज गिरी की बजाय एक दुकान पर काम कर रहा है।
ठप्पे की जगह बना लिया सांचा
पहले रंगरेज ठप्पे का प्रयोग करते थे। इनके पास फूल पत्तियों, पशु पक्षियों तथा अन्य ऐतिहासिक चरित्रों आदि से संबंधित ठप्पे होते थे। जिन्हें रंगों में डूबो कर लिहाफ पर लगाया जाता था। लेकिन सतपाल ने एक विशेष सांचा बना लिया है। जिस पर रंग डालकर लिहाफ रंगा जाता है। इससे वह कम समय में ज्यादा लिहाफ रंग सकता है।
एक लिहाफ के मिलते हैं सिर्फ 35 रुपए
सतपाल ने बताया कि उसे एक लिहाफ रंगने के केवल 35 रुपए मिलते हैं। इनमें से ज्यादात्तर रंगाई के सामान तथा अन्य व्यवस्थाओं पर ही खर्च हो जाते हैं। जहां वह रंगाई का काम करता है वह स्थान भी किराए का है। पूरे वर्ष में दो हजार के आसपास ही लिहाफ आते हैं। उसे व उसकी पत्नी को कुछ नहीं बच पाता। उनको दुकानदारों से काम मिलता है। ग्राहक सीधे उनके पास नहीं आते। वे चाहकर भी अपने काम की कीमत नहीं बढ़ा पा रहे हैं।
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